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Monday 28 May 2012

पर यह मोहन कौन-


Mahatma Gandhi’s glasses fetch £41k at auction


पुतली की ज्योति प्रखर, सोया यमुना तीर ।
सत्य-अहिंसा देश हित, अर्पित किया शरीर ।

अर्पित किया शरीर, यशोदा माँ  का मोहन ।
कुरुक्षेत्र का युद्ध, करे गीता  सा  प्रवचन ।
पर यह मोहन कौन, नचाये जिसको सुतली ।
कौन नचावन-हार,  बना नाचे कठपुतली ।। 


Kathputli, Indian String Puppetry

Thursday 24 May 2012

दस जन, पथ पर डोलते, करके ढीली डोर

O B O द्वारा आयोजित 

"चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता अंक -१४

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कुंडली
बालक सोया था पड़ा,  माँ-बापू से खीज |

मेले में घूमा-फिरा, मिली नहीं पर चीज  |
मिली नहीं पर चीज, करे पुरकस नंगाई  |
नटखट नाच नचाय, नींद निसि निश्छल आई |
हो कठपुतली नाच, मगन मन जागा गोया ।
डोर कौतिकी खींच,  करे खुश बालक सोया ||

कुंडली
नहीं बिलौका लौकता, ना ही कुक्कुर भौंक |
खिड़की भी तो बंद है, देखे भोलू चौंक |
देखे भोलू चौंक, लाप लय लहर अलौकिक |
हो दोनों तुम कौन, पूँछता परिचय मौखिक |
मंद मंद मुस्कान, मौन को मिलता मौका |
रविकर मन की चाह, कभी क्या नहीं बिलौका ||

दोहे
कठपुतली बन नाचते, मीरा मोहन-मोर |
दस जन, पथ पर डोलते, करके ढीली डोर ||

कौतुहल वश ताकता, बबलू मन हैरान |
*मुटरी में हैं क्या रखे, ये बौने इन्सान ??
*पोटली
बौने बौने *वटु बने, **पटु रानी अभिजात |
कौतुकता लख बाल की, भूप मंद मुस्कात ||
*बालक **चालाक
राजा रानी दूर के, राजपुताना आय |
चौखाने की शाल में, रानी मन लिपटाय ||
भूप उवाच-
कथ-री तू *कथरी सरिस, क्यूँ मानस में फ़ैल ?
चौखाने चौसठ लखत, मन शतरंजी मैल ||
*नागफनी / बिछौना
बबलू उवाच-
हमरा-हुलके बाल मन, कौतुक बेतुक जोड़ |
माया-मुटरी दे हमें, भाग दुशाला ओढ़ ||

कुंडलिया
गर जिज्ञासा बाल की, होय कठिनतर काम ।
सदा बाल की खाल से, निकलें प्रश्न तमाम ।
निकलें प्रश्न तमाम, बने उत्तर कठपुतली ।
करे सुबह से शाम, जकड ले बोली तुतली |
है दर्शन आध्यात्म, समझ जो पाओ भाषा |
रविकर शाश्वत मोक्ष, मिटा दो गर जिज्ञासा ||

(2)
रविकर तन-मन डोलते, खोले हृदयागार |
स्वागत है गुरुवर सभी, प्रकट करूँ आभार |
प्रकट करूँ आभार, सार जीवन का पाया |
ओ बी ओ
ने आज, सत्य ही मान बढाया |
अरुण निगम
आभार, कराया परिचय बढ़कर |
शुचि सौरभ संसार, बहुत ही खुश है रविकर ||

Wednesday 23 May 2012

होती जनता क्रुद्ध, उखाड़ेगी क्या रविकर-

मोहन माखन खा गए, मोहन पी के दुग्ध ।
आग लगा मोहन गए, लपटें उठती उद्ध ।

लपटें उठती उद्ध, जला पेट्रोल छिड़ककर ।
होती जनता क्रुद्ध, उखाड़ेगी क्या रविकर ।

बड़े कमीशन-खोर, चोर को हलुवा सोहन ।
दाढ़ी बैठ खुजाय, अर्थ का शास्त्री मोहन ।। 

Monday 21 May 2012

सरप्राइज देते रहो, अतिथि बिना तिथि आय के -

 छप्पय / छप्पन-भोग 

chocolate bananaDiwali Faral
जब आते मेहमान, खाने को बढ़िया मिले ।
मस्त मस्त पकवान, मालपुआ-गुझिया तले।
Khas Khas jo seero(poppy seeds dessert)

अतिथि रखो बस ध्यान, धीरे  धीरे पाइए ।
पेटू रविकर जान,  अपना फर्ज निभाइए ।  
Laai(chikki)
बीबी रखती है सदा, नजरें खूब गड़ाय के ।
सरप्राइज देते रहो, अतिथि बिना तिथि आय के ।।

Dal Pakwan

Sunday 20 May 2012

दर्श मिले इक बार, मिटें दुःख रविकर सारे -

सारे दुःख की जड़ विकट, रखें याद संजोय |
समय घाव न भर सका, आँखे रहें भिगोय ।


आँखे रहें भिगोय, नहीं चाहूँ 
छुटकारा  ।
अंतर-मन चुपचाप,  नाम नि:शब्द पुकारा ।

 
सचमुच पहला प्यार, हमेशा हृदय पुकारे ।
दर्श मिले  इक बार, मिटें दुःख रविकर सारे ।।

Wednesday 16 May 2012

साधू मन का प्राण सुखाता । साठ साल की हो ली माता ।

साठ साल की हो ली माता । पूत धर्म-संसद बैठाता ।
इक आसन पर मातु विराजी । आये पंडित मुल्ला काजी ।|

तहरीरें सब ताज़ी-ताज़ी । आपस में दिखते सब राजी ।
फर्द-बयानी जीते बाजी | भाई-चारा  हाँ जी माँ जी ।।

आजा-'दी वो ताजा मौका  |  देशी घी का लगता छौंका ।
पंगत में मिलकर सब खाता । साठ साल की हो ली माता ।।



खाना पीना मौज मनाना | धमा चौकड़ी रोब ज़माना |
पहले भांजें बहरू चाचा । शास्त्री एक पत्रिका बांचा ।

बुआ चूड़ियाँ रही बांटती | ढाका मलमल शुद्ध काटती |
निपटे सभी पचहत्तर झंझट | नई पार्टी बैठी झटपट |

सोमनाथ का तांडव नर्तन | झटपट खटपट करते बर्तन |
नई बही पर चालू  खाता  । साठ साल की हो ली माता ।|


दुहरी सदस्यता का मसला | देसाई कुर्सी से फिसला |
जै जै जै जै दुर्गे माता | जो भी आता शीश नवाता |

आये मिस्टर क्लीन बटोरें | नई सोच से सबको जोड़े ।
बाल-ब्रह्मचारी ने आ के | करते बढ़कर अटल धमाके |

रात हुई मन मौन हो गए | कुर्सी तख्ता सदन धो गए |
जूठी पत्तल कुत्ते चाटें | भौंके डकरें दौड़े  कांटे  ||

भूखी बाहर रोवे अम्मा | अन्दर सोवे पूत निकम्मा |
साधू मन का प्राण सुखाता । साठ साल की हो ली माता ।

पौ बारह उन्माद, कभी अवसाद झेलना

सट्टा शेयर जुआं से, रक्खें खुद को दूर |
असली जीवन-दांव पर, हो जाते  मजबूर | 

 
हो जाते  मजबूर,  पडेगा इसे खेलना ।
पौ बारह उन्माद, कभी अवसाद  झेलना |

इक थैली का किन्तु, नहीं सब चट्टा-बट्टा |
रख जोखिम प्रभु दूर, बराये रविकर सट्टा ||

Sunday 13 May 2012

बुद्धि का अंकुश हटा दे, मन रहा कबसे मचल -

लेखनी है परेशां, न रच रही कोई गजल |
पेट से है हो गई, चूस स्याही दे उगल ||

शब्द तो स्वर बोध केवल, भाव ही मतलब असल |
लुप्त  हो  जाएगा  अनृत, सत्य  ही शाश्वत अटल ||

है  परिश्रम  मूल में  पर, भाग्य  ही काटे  फसल |
आस्मां का भ्रमण कर ले, फिर के आये भू-पटल  ||

बुद्धि का अंकुश हटा दे, मन  रहा कबसे मचल |
स्रोत्र सूखें सूख जाएँ, हो रहे हर-दिन कतल  ||

करती तरंगें चिड़ीमारी, बैठ अपने हाथ  मल |
हाथ पर हम हाथ रक्खे, कोसते आजकल ||

Saturday 12 May 2012

पाए ना दो कौर, लाज चुपचाप समेटे-

(1)
मन विकसित न हो सका,  तन का हुआ विकास ।
बीस साल से ढो रहा, ममता  का विश्वास ।
ममता  का विश्वास, सबल अबला है माई ।
नब्बे के.जी. भार, उठा के बाहर लाई  ।
रविकर वन्दे मातु , उलाहन देता भगवन ।
तुझसे मातु महान, निरोगी कर तो तन मन ।।
(2)
 अस्थि-मज्जा रक्त तक, माता रही लुटाय ।
 दो-दो पुत्रों की रही, पल पल बोझ उठाय ।
पल-पल बोझ उठाय, बनाई काबिल बन्दा ।
अब माता मुहताज, लगाएं बेटे चंदा ।
कैसा गंदा दौर, भूलते माँ को बेटे ।
पाए ना दो कौर, लाज चुपचाप समेटे ।।

जियो जग छोड़ उदासी-

उदासीनता की तरफ, बढ़ते जाते पैर ।
रोको रविकर रोक लो,  करे खुदाई खैर ।   
करे खुदाई खैर, चले बनकर वैरागी ।
दुनिया से क्या वैर, भावना क्यूँकर जागी ।
दर्द हार गम जीत,  व्यथा छल आंसू हाँसी ।
जीवन के सब तत्व, जियो जग छोड़ उदासी ।। 

Wednesday 9 May 2012

रविकर अंकुर नवल, कबाड़े पौध कबड़िया -

Young girl sitting on a log in the forest
जलें लकड़ियाँ लोहड़ी, होली बारम्बार
जले रसोईं में कहीं, कहीं घटे व्यभिचार ।

कहीं घटे व्यभिचार, शीत-भर जले अलावा ।
भोगे अत्याचार,  जिन्दगी विकट छलावा ।

 
रविकर अंकुर नवल, कबाड़े पौध कबड़िया ।
आखिर जलना अटल, बचा क्यूँ रखे लकड़ियाँ ।।
Lohri
लकड़ी काटे चीर दे, लक्कड़-हारा रोज ।
लकड़ी भी खोजत-फिरत, व्याकुल अंतिम भोज ।
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/f/f9/Sati_ceremony.jpg

ब्लॉग-विलासी दुनिया में-

ब्लॉग-विलासी दुनिया में, जो जीव विचरते हैं ।
 सुख-दुःख, ईर्ष्या-प्रेम, तमाशा जीते-करते हैं ।।

सुअर-लोमड़ी-कौआ- पीपल, तुलसी-बरगद-बिल्व 
अपने गुण-धर्मो  पर अक्सर व्यर्थ अकड़ते हैं ।    

तूती*  सुर-सरिता जो साधे, आधी आबादी  
काकू के सुर में सुर देकर  "हो-हो"  करते हैं |

हक़ उनका है जग-सागर में,  फेंके चाफन्दा*
जीव-निरीह फंसे जो 'रविकर',  आहें  भरते  हैं |

भावों का बाजार खुला,  हम सौदा कर  बैठे
इस जल्पक* अज्ञानी  के तो बोल तरसते हैं ||

जल्पक = बकवादी         तूती =छोटी जाति का तोता
चाफन्दा = मछली पकड़ने का विशेष  जाल
सुअर-घृणित वृत्ति        लोमड़ी-मक्कारी         कौआ-चालबाजी  
पीपल-ध्यान   तुलसी-पवित्रता    बरगद-सृष्टि      बिल्व-कल्याण

Monday 7 May 2012

चले चतुर चौकन्ने चौकस -

श्वेत कनपटी तनिक सी, मुखड़ा गोल-मटोल ।
नई व्याहता दोस्त की, खिसकी अंकल बोल ।
चले चतुर चौकन्ने चौकस ।|

केश रँगा मूंछे मुड़ा, चौखाने की शर्ट |
अन्दर खींचे पेट को, अंकल करता फ्लर्ट |
मिली तवज्जो फिर तो पुरकस ||


धुर-किल्ली ढिल्ली हुई, खिल्ली रहे उड़ाय |
जरा लीक से हट चले, डगमगाय बलखाय |
रहा सालभर चालू सर्कस ||

दाढ़ी मूंछ सफ़ेद सब, चश्मा लागा मोट ।
इक अम्मा बाबा कही, सांप कलेजे लोट ।
बैठ निहारूं खाली तरकस ।।

Friday 4 May 2012

राह - राह 'रविकर' रमता, मरी - मरी मिलती ममता-

  शोक-वाटिका की ऐ सीते !
     राम-लखन के तरकश रीते ||
जगह-जगह जंगल-ज्वाला , उठे धुआँ काला-काला|
प्रर्यावरण - प्रदूषण  ने, खर - दूषण  प्रतिपल  पाला || 
          कुम्भकरण-रावण जीते - 
          राम-लखन के तरकश रीते||
नदियों में मिलते नाले, मानव-मळ मुर्दे डाले |
'विकसित' की आपाधापी, बुद्धि पर लगते ताले||
          भाष्य बांचते भगवत-गीते -
         राम-लखन के तरकश रीते||
पनपे हरण - मरण  उद्योग, योग - भोग - संयोग - रोग |
काम-क्रोध-मद-लोभ समेटे, भव-सागर में भटके लोग ||
          मनु-नौका में लगा पलीते - 
         राम-लखन के तरकश रीते||
राग - द्वेष - ईर्ष्या  फैले,  हो  रहे  आज  रिश्ते  मैले |
पशुता भी चिल्लाये-चीखे, मानवता का दिल दहले ||
         रक्त-बीज का रक्त न पीते -
         राम-लखन के तरकश रीते||
राह - राह  'रविकर' रमता, मरी - मरी मिलती ममता |
जगह-जगह जल्लाद जुनूनी, भ्रूण चूर्ण कर न थमता ||
         कोख नोचते कुक्कुर-चीते - 
        राम-लखन के तरकश रीते ||

Thursday 3 May 2012

तीन-पांच पैंतीस, रात छत्तिस हो जाती-

पाठ पढ़ाती पत्नियाँ, घरी घरी हर जाम   |
बीबी हो गर शिक्षिका,  घर कक्षा  इक्जाम | 
 
घर कक्षा इक्जाम, दृष्टि पैनी वो राखे |
गर्दन करदे जाम, जाम रविकर कस चाखे  |

तीन-पांच पैंतीस, रात *छत्तिस हो जाती |
पति तेरह ना तीन, शिक्षिका पाठ पढ़ाती ||

*३६

व्यस्त जमाने के पहलू में ऊँघे बच्चा -

कनरसिया के कानों के भी तंभ तंबूरे   --
मनभावन सुर-तालों को अब बेढब घूरे ||

कनकैया-कनकौवा का कर काँचा माँझा
गगन-पुष्प की खातिर मानव भटके-झूरे ।।

युवा मनाकर आठ पर्व  को  नौ-नौ  बारी
भूली - बिसरी  परम्पराएँ   अपनी  तूरे ||

नैतिकता के नए बनाए मानक अपने -
भोग-विलासी जीवन के हित पागल पूरे ||

व्यस्त जमाने के पहलू में ऊँघे बच्चा 
कैसे  पूरे  हों  बप्पा के  ख़्वाब अधूरे ||